Monday, March 1, 2010

फिल्म कमीने में शाहिद कपूर हकला बने हैं

फिल्म कमीने में शाहिद कपूर हकला बने हैं, लेकिन किसी हकले की वास्तविक पीड़ा को समझना हो तो कुमार अंबुज की यह कहानी पढि़ए

मैं अपनी सुदूर स्मृति के पहले दिन से ही हकला हूं। 'स्पीच थेरेपी ’ का नाम न तो मेरे घर-गांव में किसी ने सुना था, न कस्बे में। बचपन में यह तय हो जाने के बाद कि यह तुतलाहट और भाषा सीखने की लडख़ड़ाहट से अलग कोई दूसरी चीज 'हकलाहट ’ है, पिताजी द्वारा कई बार मेरी पिटाई भी की गई। पिताजी दुखी थे, चिंतित और मेरी हकलाहट दूर करने केलिए प्रतिबद्ध। वे मुझसे एक झटकेमें ही पूरा वाक्य बोलने की अपेक्षा रखते थे। इसलिए प्यार से अपने पास बुलाते, गोद में बैठाते, एक हाथ में अमरूद दिखाते हुए रखते और कहते, 'बोलो बेटा, राम ही हम सबका रखवाला है। ’ इसी तरह के कुछ और वाक्य भी बोलने के लिए कहते। मैं अमरूदों की तरफ याचनापूर्ण आशा से देखते हुए और असफलता की स्थिति में पिताजी के आगामी रूप की कल्पना करते हुए अजीब से उत्साह, भय और आशंका की स्थिति में पड़ जाता और 'सबका ’ या 'रखवाला ’ तक आते-आते गड़बड़ हो जाती। पिताजी उत्साह बढ़ाते।
जितना उत्साह वे बढ़ाते, उतना ही परिणाम प्रतिकूल होता जाता। आखिर, अमरूद कहीं एक तरफ लुढ़क रहे होते और मैं दूसरी तरफ। पिटता मैं और क्षोभ भरा विलाप पिताजी करते। कुछ दिनों बाद जब मैं पक्केतौर पर हकला हो गया और उन शब्दों पर भी अटकने लगा, जिन्हें पहले आसानी से, बिना हकलाए बोल लेता था, तब पिताजी ने उम्मीद छोड़ दी। भीषण उम्मीद और उद्देश्यपूर्ण पिटाई का संबंध खत्म हो गया। पिताजी के चेहरे पर मुझे देखते ही असहायता, पीड़ा और कातरता के भाव उभर आते। फिर कुछ दूसरे प्रयास भी किए गए। भभूत, लाल-काली कंठियां, ताबीज, रिश्तेदारों की सलाहों केआधार पर मुलहठी, मिश्री, शहद में भस्मों केसाथ कई तरह के काढ़ों का प्रयोग आदि। इनसे सबसे बड़ी बात यह हुई कि मैं स्कूल जाने से पहले ही पड़ोस में, मोहल्ले, रिश्तेदारों और परिचित परिवारों में हकले के रूप में प्रसिद्ध हो गया। सबने मुझे लाइलाज हकला मान लिया और मेरे प्रति सहानुभूति रखने लगे। कुछ लोग अतिरिक्त हास्य पाने के लिए भी मुझे अपनी-अपनी टोलियों में लेते। बड़ी बहन मुझे इस तरह की टोलियों का शिकार होने से बचाने की प्राय: असफल कोशिश करती। फिर मैं संकोची, काफी हद तक सुशील और दरअसल एक हकले बच्चे की तरह बड़ा होने लगा। हकलाहट मेरी पहचान में सहायक होने लगी। कौन रमेश? अच्छा, रमेश हकला!! स्कूल के दिनों की गाथाएं भी लगभग ऐसी ही थीं। कई बार शिक्षक भी क्लास में मेरा मजाक बनाते या बनता देखते। मुझमें भी एक मूर्खतापूर्ण उत्साह घर कर गया था। बजाय उसके कि अधिकतर चुप्पा बना रहता, जैसा कि आजकल रहने लगा हूं, मैं बोलने का प्रयास करता। सहपाठी उकसाते कि मैं 'सर ’ से कुछ सवाल पूछ लूं। पिछली रात देखे गए नाटक या फिल्म की कहानी सुनते। सालों-साल गुजरने केबाद और कुछ समझदारी आने पर मैंने खुद को अब किसी हद तक संयत करना सीख लिया है। लेकिन यह इतना कठिन है और इतना जानलेवा कि आपको हर बार लगता है कि आप बोल सकते हैं, पूरा शब्द बोल सकते हैं, आपकी इच्छा बोलने की है और आप चुप रह जाते हैं, क्योंकि एक पल में ही हजारों असफलताएं, कटाक्षपूर्ण हंसी, दया बरसाती निगाहों की रीलें पहले से ही दिखने लगती हैं।
अनगिनत शब्दों ने मेरा गला घोंटा है, मेरे कंठ में फंसे पड़े हैं और मेरी नींद में, मेरे सपनों में चुभते हैं। टूटे-फूटे शब्दों के कोने किनारे, उनकी नोकें किस कदर तकलीफ देती हैं। मुझसे ज्यादा कौन समझेगा? शायद गूंगा भी नहीं, क्योंकि उसके गले में शब्द पूरे-के-पूरे जज्ब हंै। टूटे, तुड़े-मुड़े या किरच-किरच शब्द तो मेरे गले में ही फंसे हैं। हालांकि किसी गूंगे की तुलना में कितना भाग्यशाली हूं। यह भी मैं समझता हूं। लोग समझते हैं कि मैंने शब्दों का गला घोंटा है, उन्हें क्षत-विक्षत किया है, जबकि सच यह है कि मैंने शब्दों को अंतरात्मा की गहराइयों से बोलना चाहा है। उत्कट कामना और आकांक्षा से मैं उनके पास गया हूं, कसकर उनका हाथ पकड़ा है, जद्दोजहद की है लेकिन...। छोडि़ए भी, मैं तो हकला ही ठहरा। बचपन और किशोरावस्था के अनेक निर्जन और अकेले कोने मुझे याद हैं। जब मैं शब्दों को पुकारता ही जाता था और आप यकीन नहीं करेंगे कि उस एकांत में, जिसकी गवाह कुछ दीवारें हैं और कुछ दूसरी गैर मनुष्य चीजें, मैंने कई वाक्य पूरे बोले हैं। लंबे वाक्य। खंडहर में बदल चुके पहाड़ी पर बने उस किले केदरबार हॉल की वह दोपहरी भला कैसे भूल सकता हूं, जब मैंने कुछ वाक्य चिल्लाकर लगातार बोले थे, बिना हकलाए। उन वाक्यों की अनुगूंज उस हॉल की विशाल, ऊंची छत से टकराकर लौटी थी। खुशी से मेरा वह उछलना और उसके बाद का रोना कि मैं बोल सकता हूं। हकलाए बिना। वह वीराना, वह खंडहर, वह इतिहास और उसके ऊपर का आकाश गवाह है। लेकिन यह गवाही, यह मेरी एकांत साधना, यह सफलता किसी काम नहीं आ सकती। लोगों के बीच में, जैसे मैं किसी चढ़ाई पर चढ़ता, एक सीढ़ी, संभलकर दूसरी, फिर तीसरी...आठवीं...ग्यारहवीं, किसी न किसी सीढ़ी से अचानक लुढ़क पड़ता। मैं हकले के रूप में बड़ा होता रहा। अनुभवों से सीखता रहा और चुप रह जाने के अवसर पहचानने लगा। धीरे-धीरे लोगों की पहचान भी होने लगी। अब मैं किसी को देखकर अनुमान लगा सकता हूं कि यह आदमी मेरी हकलाहट पर हंसेगा अथवा नहीं। या मन ही मन मेरी अजीबो-गरीब और काफी हद तक अर्जित की गयी इस विकलांगता को लेकर खिल्ली उड़ाएगा या दया भाव रखेगा या फिर घर जाकर या मित्रों के बीच उसका स्वांग करेगा और कुछ देर के लिए खुद हकला हो जाएगा।
पहले दया भाव अच्छा लगता था। मां का छाती से चिमटाकर आंसू टपकाना, जैसे वह दुनिया केतमाम हत्यारों से, चुहलबाजों से मुझे बचा लेना चाहती थी। सातवीं कक्षा का वह सहपाठी याद है, जो बड़ी बहन की तरह मुझे शिकारी टोलियों से बचाने के लिए सक्रिय रहता। वह पेड़, जिसके नीचे बैठकर मैं अपना सबक याद करता और कई बार जोर से बोलकर याद करता। बड़ी बुआ, छोटे मामा और वह लड़की भी इसी गिनती में आएंगे जो मेरी तरफ आसक्ति भरी लेकिन दुखित निगाह डालते थे, जिसमें उपहास कतई नहीं था। ऐसी सुरक्षाओं में ही मैं बड़ा हो पाया। लेकिन धीरे-धीरे दया-भाव बुरा लगने लगा। बल्कि इस दया-भाव से मुक्ति पाने के लिए मुझे पढऩे-लिखने में, कुछ नया काम करने में रुचि और ललक पैदा हुई। यह अनायास नहीं हुआ कि धीरे-धीरे मैं लिखित शब्दों की ओर आकर्षित होने लगा। फिर जल्दी ही कहानियों, कविताओं और उपन्यासों की दुनिया में प्रवेश कर गया। उस दुनिया की सबसे खूबसूरत बात थी कि वहां कोई हकलाहट नहीं थी। सारे शब्द संपूर्णता में थे, अपने समूचे शरीर सहित। लेकिन वे सब वाक्य अपनी बात एक सांस में बोलते थे। सही उतार-चढ़ाव के साथ। जैसे वे खुद ही पात्र हों। उनकी धमक, उनका उच्चारण, उनका ओज और असर जादुई था। मैं इन्हें पढ़ता नहीं था, मन ही मन बोलता था, बिना हकलाहट के। उस आनंददायी दुनिया में मैं हकला नहीं रह गया था, वहां मुझे कोई हकला नहीं समझता था। मैं पिता को बताना चाहता था कि मुझसे वहां कोई नहीं कहता, 'लो, यह एक वाक्य और उसे बोलकर दिखाओ। ’ अपने मनचले रिश्तेदारों, पड़ोसियों और सहपाठियों से कहना चाहता था कि देखो, यहां ऐसी कोई टोली नहीं है, जो मुझे घेर ले। लेकिन मैंने किसी से कुछ नहीं कहा, किसी को कुछ नही बताया। यह दुनिया जादू की थी और मैं नहीं चाहता था कि इस दुनिया का पता किसी और को चले। इस तिलस्म को मैं टूटते हुए नहीं देखना चाहता था। यह एक सुरक्षित और आत्मीय संसार था। इसका पता किसी और को नहीं दिया जा सकता था। पिता को भी नहीं। यह मेरी गुफा थी लेकिन यहां से अधिक खुलापन, दीवानापन और अपनापन कहीं नहीं था। इससे मिलने वाली ताकत और आश्वस्ति कितनी बड़ी थी, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मैं छपे या लिखित शब्दों के देखते ही अपनी सारी उदासी, सारा दुख और दंश भूल जाता था। पालतू पशुओं के प्रति मेरा प्रेम भी इसी हकलाहट की देन समझा जा सकता है।
गाय केबछड़े से मेरा पहला प्रेम हुआ, तब मैं दस ग्यारह साल का था। उससे मेरा वार्तालाप रहा। मैं उसके गले से लिपट जाता और वह अपनी गर्दन का पूरा भार मेरे कंधे पर छोड़ देता। फिर एक तोते ने मुझे जीवन दिया। हम एक -दूसरे के बिना खाना भी नहीं खाते थे। इतनी बातें करते कि पता ही नहीं लगता था कि वह पक्षी नहीं रह गया है या मैं पक्षी हो गया हूं। गली के एक कुत्ते ने पांच साल तक मेरा साथ दिया। वे सब मेरे अधूरे शब्दों को पूर्ण बनाते थे। मैं आज भी बिल्लियों, घोड़ों, गधों, कुत्तों, बकरियों और चिडिय़ों की बहुत इज्जत करता हूं। हालांकि अब उन्हें पालना, बंदी बनाना या उनके जीवन को बाधित करना मुझे अच्छा नहीं लगता। एक निजी राहत की बात यह है कि गाना गाते हुए मुझे इस हकलाट से मुक्ति मिलती है। मगर मैं हद से ज्यादा बेसुरा रहा आया हूं। फिर भी अकेले में गाना मेरे लिए स्फूर्तिदायक है। संगीत में मेरी दिलचस्पी है और मैं संगीत के लिए आसानी से रतजगे कर सकता हूं। अब जाकर समझ आया है कि कुछ और बातों के लिए भी मैं अपनी हकलाहट के प्रति आभारी हो सकता हूं। जैसे, यह हकलाहट नहीं होती तो बांस के झुरमुटों, नदी के किनारों, मिट्टी के ढूहों, सूनी इमारतों, वृक्षों की मोटी पुरानी जड़ों, चट्टानों और जंगल केभीतरी दृश्यों से मेरा उतना गहरा परिचय नहीं हुआ होता। हवा की आवाज, जैसी वह अलग-अलग वृक्षों के पत्तों से गुजरते हुए आती है, नदी की आवाज जो दिन में दस बार बदलती है, अनगिन जंतुओं और जानवरों की आवाजों को जानने समझने का सिलसिला और प्रकृति केपास जाते ही उसमें धंस जाने का यह माद्दा शायद पैदा नहीं हुआ होता। चीटिंयों और सांप की बांबियों के फर्क को समझना अब कितना आसान है। सितारों से, उनकी दुलकी चाल से, चंद्रमा से और रात के अलौकिक अंधेरे से या अनजान निर्जन कोनों से मेरी सघन मुलाकातें नहीं हुई होतीं। लेकिन किसी हकले से ज्यादा यह बात भला किसे याद रहेगी कि अंतत: वह एक मनुष्य है और उसे मनुष्यों के साथ ही रहना है। अपने जीवन के तमाम काम मुझे मनुष्यों के साथ ही रहकर करने हैं। इसलिए धीरे-धीरे मुझमें पुकारते चले जाने का जो धीरज पैदा होता गया है, हकलाहट का उसमें खासा योगदान है। यह समझने की ताकत भी यहीं कहीं से आयी कि मेरे पास कितनी सारी दूसरी जादुई शक्तियां हैं और मैं कितने सारे काम मजे में कर सकता हूं। और एक दिन मुझे यह भी लगा कि मै हकला जरूर हूं, लेकिन सचमुच हकलाता नहीं हूं। जब उस दिन मैंने देखा कि वह आदमी, जिसे मैं बलशाली समझता था, जो साफ-शफ्फाफ शब्द बोलता था, जिसके शब्द तराशे हुए हीरों की तरह बिखरते थे और ललचाते थे, जिसे सुनना एक अनुभव था और जो अपनी वाणी से ईष्र्या पैदा करता था, वह अचानक ही एक-दूसरे आदमी को देखकर हकलाने लगा। मुझे उस रोज रात भर नींद नहीं आयी। फिर आधी रात में मैं चिल्ला उठा, 'ओह! तो मैं हकला नहीं हूं। सचमुच का हकला नहीं हूं। ’ यह रहस्य से पर्दा उठने जैसा था। सारी दुनिया मेरे लिए उस दिन से रोज बदल रही है। ध्यान से देखने सुनने पर मुझे अब अनेक लोग ऐसे मिलते हैं, जो सरपट बोलते दिखते हैं, लेकिन उस बीच वे अनेक बार हकला रहे होते हैं। वे सपाट मैदान में चलते हुए गिर रहे हैं। उन्हें सुनने वाला शख्स भी समझ रहा होता है कि हां, ये जनाब हकला रहे हैं। जबकि शब्द इस उम्मीद में उनके पास आते थे, वाक्य उनकेकरीब आते थे कि उन्हें वहां पूर्णता मिलेगी, वे संवाद की दुनिया में अपने हिस्से का काम करेंगे, लेकिन अचानक ही सब देखते कि जिन पर शब्दों ने सबसे ज्यादा भरोसा किया होता, वे ही लोग हकलाने लगते। जब वे इतनी साधारण बातें कहना चाहते, 'आप चिंता न करें, मैं आपकेसाथ खड़ा हूं। ’, 'मैं आपकी भलाई के लिए काम कर रहा हूं ’, 'प्रधानमंत्री जी खराब कविता लिखते हैं। ’, 'यह सब्जी महंगी है ’ या 'यह कि आज की शाम कितनी सुहानी है ’, तब भी वे हकलाने लगते। उन्हें देखते हुए अचानक यह जान लेना कितना सुखद था कि दरअसल, मैं हकला नहीं हूं। लेकिन यह देखना कितना मारक था कि दुनिया में इतने ज्यादा हकले हैं।
संख्या बढ़ी चली जा रही है। मैं उनसे कहना चाहता हूं कि तुम नहीं जानते यह किस कदर खूबसूरत बात है कि तुम शब्दों को आरोह-अवरोह के साथ उनकी संपूर्णता में संप्रेषित कर सकते हो, उन्हें उस तरह बोल सकते हो जिस तरह बोले जाने के लिए वे बने हैं और रोज बन रहे हैं, उन्हें तुम एक वाक्य के सुंदर विन्यास में पेश कर सकते हो, उनकी पूरी ताकत के साथ, उनके पूरे रोमांच केसाथ! शब्द को जब तुम किसी घन की तरह पटकना चाहो, तो पटक सकते हो। यह नहीं कि मेरी तरह सबसे ताकतवर शब्द पर आकर मुंह बाये रह जाओ। या यह कि तुम जोर देकर एक वाक्य बोल रहे हो और ठीक बीच में हाथ उठा हुआ ही रह गया और शब्द हवा में झूल गया। तुम एक झटके में फूल को फूल कह सकते हो और गड्ढे को गड्ढा। तुम हकले नहीं हो, तो यह जानो कि यह कितनी बड़ी बात है, कितनी बड़ी क्षमता। मुझसे पूछो। यकीन न हो, तो मेरे गले को भीतर झांको। मेरी नाभि में, मेरे कुएं में देखो। देखो घिग्घी बांधकर निढाल हो गए शब्दों की देह। सुनो उनका रुदन। उनकी बेचैनी देखो और उनकी अकाल, घिसटती हुई लंबी मृत्यु। उनकी खंडित प्रतिमाएं। उन्हें देखो कि तुम समझ सको कि तुम्हारी भूमिका कितनी बड़ी है, कितनी जबरदस्त। मैं तुम्हारे सामने हूं। मेरा रेशा-रेशा उधेड़कर देखो और जानो कि आखिर हकला होना क्या होता है। यह कितने दुखों से मिलकर बनता है। इससे कितनी बड़ी असहायता का निर्माण होता है, कितनी खिड़कियां, कितने दरवाजे बंद होते हैं। मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि तुम हकले नहीं हो। तुमने हकले का दुख नहीं देखा है और जीवन भी नहीं। तुम वास्तव में हकले होते, तो तुम्हें तमाम प्रकृति, पशु-पक्षियों और किताबों से भी प्रेम होता। और इनसानों से भी। लेकिन मैं हकलाता हुआ ही इन वाक्यों को कह पाया हूं, किसी भयवश नहीं, बल्कि माफ करें, जैसा आप जानते ही हैं कि यह मेरी जन्मजात मजबूरी है। फिर भी व्यक्तिगत बातचीत में, बहसों में, चाय की गुमटियों के किनारे की गपशप में, मीटिंग्स में और आत्मालाप में यही सब कुछ कहता रहा हूं। तरह-तरह से। घुमा-फिराकर। सीधे-सीधे भी। लेकिन किसी उपदेश की तरह नहीं। न ही किसी मंत्र की तरह। मैं अपने निजी दुख की तरह इसे तुम्हारे सामने रखना चाहता हूं। जांध में पके हुए फोड़े की तरह। कि आप ध्यान से एक बार सुन तो लें।
फिर यह सब कह सकने के लिए मुझे लिखित शब्द याद आए। उनकी गरिमा, उनकी बेधक आवाज, गड़हगड़ाहट और उनकी शक्ति याद आयी। इसलिए लगा कि लिखकर ही आपसे कुछ कहूं। अपनी पूरी गाथा, जल्दी-जल्दी एक सांस में इसलिए लिख सुनायी कि आप एक हकले का दर्द, निरुपायता और व्याकुलता कुछ हद तक महसूस कर सकें और जानें कि हकला न होना कितनी बड़ी नियामत है। खासतौर पर तब, जबकि आपकी यह हकलाहट मेरे मन में आपके लिए सहानुभूति भी नहीं बना पा रही है। और आपकी इस पकी उम्र को देखकर मैं यह मानने को भी तैयार नहीं हूं कि आप मेरा स्वांग कर रहे हैं और महज मनोरंजन करना चाहते हैं। यदि आप हकले नहीं हैं, तो हकला बनने की जरूरत क्या आन पड़ी है! मैं किस मुंह से कहूं कि मुझे अब मेरी हकलाहट उतनी बेचैन नहीं करती जितनी आपकी। आखिर में, मैं चाहता हूं कि आपका धन्यवाद अदा करूं। क्योंकि एक हकला, उनका शुक्रिया ही सबसे ज्यादा अदा कर सकता है, जो उसे धैर्यपूर्वक सुनें, उसके खुले हुए मुंह, पेशानी केबल और शब्द को खींच निकाल लाने के श्रम पर अफसोसनाक निगाह न डालें। और जब वह किसी एक शब्द पर, रह सकें और उसका वाक्य पूरा होने तक उसकी तरफ उस तरह देख सकें, जैसे बचपन में मेरी मां, मुझ हकले की तरफ देखती है।

कुमार अंबुज

1 comment:

  1. आपकी रचना बहुत अच्छी है, इसमें जो एक रोचक मनोरंजक और किसी व्यक्ति की व्यथा को प्रदर्शित करती कृति है,और शब्दों और वाक्यों का विन्यास भी बहुत अच्छा है,वैसे में आपके और भी ब्लॉग पड़ना चाहूँगा तो कृपया और कोई ब्लॉग हो तो उनकी लिंक भी दीजिए,
    और हम सब को गर्व से कहना चाहिए की में हकला हू,
    जय टीसा
    ईमेल है anilguhar@gmail.com

    ReplyDelete